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आत्मकथा भाग-1 अंश-24

बी.एससी. में मैंने गणित, सांख्यिकी और अर्थशास्त्र विषय लिए थे। रसायन विज्ञान से मुझे बहुत अरुचि थी और भौतिक विज्ञान पढ़ना मुझे अनावश्यक लगा क्योंकि मैं गणितज्ञ और अर्थशास्त्री बनना चाहता था। सांख्यिकी इन दोनों विषयों के बीच एक पुल की तरह है, अतः यह मेरा सबसे प्रिय विषय है। सांख्यिकी में हमारे दो अध्यापक थे। एक थे श्री मुहम्मद असलम अंसारी, जो मेरे श्रेष्ठतम् शिक्षकों में से एक हैं। वे मुझे बहुत प्यार करते थे। मैं तो कहूँगा कि बी.एससी. में मेरी सफलता का एक बड़ा कारण उनका प्यार और प्रोत्साहन रहा है, जिसके अभाव में मैं शायद इण्टर की तरह ही मामूली सफलता प्राप्त कर पाता। वे न केवल एक बहुत अच्छे शिक्षक थे, बल्कि एक सच्चे इंसान भी थे। हमें बहुत से अच्छे अध्यापक मिल सकते हैं, बहुत से अच्छे इंसान भी मिल सकते हैं, लेकिन ऐसे लोग बिरले ही होंगे जिनमें ये दोनों गुण पर्याप्त मात्रा में हों। श्री अंसारी ऐसी ही एक महान विभूति थे, जिनके चरण-स्पर्श करना मैं अपना सौभाग्य समझूँगा। मैं छुटपुट कविताएँ लिखता रहता था और कभी-कभी अंसारी साहब को सुनाया करता था। वे मेरी कविताओं के बहुत प्रशंसक थे और मुझे सदा प

आत्मकथा भाग-1 अंश-25

बी.एससी. में पढ़ने के हमारे वे दिन बहुत ही मौजमस्ती के दिन थे। हमेशा की तरह मैं पैदल ही काॅलेज जाता था, जो हमारे घर से मुश्किल से एक-सवा किलोमीटर दूर था। काॅलेज स्टूडेन्ट कहलाने का गर्व और काॅलेज का उन्मुक्त वातावरण हमें बरबस कालेज खींच लाता था। इसके अतिरिक्त पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों में भी मेरी रुचि थी। अपने साथियों में मैं काफी लोकप्रिय था और आश्चर्यजनक रूप से पिछली कक्षाओं के विपरीत यहाँ मेरा किसी से झगड़ा भी नहीं चलता था। इसका परिणाम यह हुआ कि पिछली कक्षाओं में मैं जहाँ दूसरों से अलग-थलग रहता था, वहाँ इन कक्षाओं में एक महत्वपूर्ण छात्र की तरह भाग लेता था। लड़के प्रायः मुझसे शेर सुनाने का आग्रह किया करते थे, जिस मैं पूरा करता था। कभी-कभी अपनी रची हुई कविताएं भी सुनाता था। मुझे याद है, एक बार मेरे एक घनिष्ट मित्र और सहपाठी श्री रामेश्वर सिंह सोलंकी थे, जो बाद में गणित के एम.एससी. करने लगे थे, मेरी एक कापी में चुपचाप लिख दिया था- मेंहदी रंग देती है सूख जाने के बाद। यार तेरी याद आती है तेरे जाने के बाद।। हाँ, अपनी सहपाठिनियों के साथ मैं इतना घनिष्ट नहीं था। यों कभी-कभी काम पड़

आत्मकथा भाग-1 अंश-23

अध्याय-6: मौजमस्ती के दिन मिले तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ। भूले तो यूँ कि गोया कभी आशना न थे।। इन्टर पास करने के बाद मैं अपनी जिन्दगी के एक चौराहे पर खड़ा था। जब तक आप इन्टर में पढ़ते रहते हैं, तब तक भविष्य की इतनी चिन्ता नहीं होती और प्रायः सोचा करते हैं कि भविष्य के बारे में इन्टर करने के बाद सोचा जायेगा। लेकिन इन्टर करने के बाद आपको निर्णय लेने के लिए बाध्य होना ही पड़ता है। आप अपनी क्षमताओं ओर अक्षमताओं का अपने हिसाब से विश्लेषण करते हैं और उसके आधार पर अपना रास्ता निश्चित करते हैं। कभी-कभी ऐसा निर्णय लेना बहुत मुश्किल हो जाता है, यहाँ तक कि आप जाने-अनजाने किसी एक रास्ते की ओर धकेल दिये जाते हैं। मैं भी उस बिन्दु पर पहुँच चुका था। मेरे सामने कई रास्ते खुले हुए थे, लेकिन बढ़ती हुई बेरोजगारी और अपनी सुनने की असमर्थता को देखते हुए मुझे ऐसा निर्णय लेना था, जो मेरे भविष्य को बनाने में समर्थ हो सके। उस बिन्दु पर लिया गया कोई भी गलत निर्णय मेरे भविष्य को घोर अंधकारमय बना सकता था। कई ऐसे क्षण उपस्थित भी हुए, लेकिन मैं ईश्वर को धन्यवाद देना चाहूँगा कि उसने मुझे अंधकार में भटकने से

आत्मकथा भाग-1 अंश-22

मेरी ममेरी बहिन आरती उन दिनों कक्षा सात या आठ में पढ़ती थी। प्रायः मैं उसे हिन्दी, अंग्रेजी, गणित, संस्कृत आदि विषय पढ़ाया करता था। हमारा घर भी मामाजी के घर के पास ही लोहामंडी के नयाबाँस मौहल्ले में था। उसी मौहल्ले में आरती की एक सहेली थी, जिसका नाम सुविधा के लिए हम ‘नीता’ रख लेते हैं। उसका असली नाम बताना मैं उचित नहीं समझता। वह काफी सुन्दर है और एक अच्छे ब्राह्मण परिवार से है। आरती के साथ ही मैं कभी-कभी उसे भी पढ़ाया करता था। जब मैं इण्टर में पहुँचा तो क्या हुआ, कब हुआ और कैसे हुआ, यह तो मुझे मालूम नहीं, लेकिन मैं उसकी तरफ आकर्षित हो गया। आरती से मैं प्रायः उसके बारे में बातें किया करता था और उसकी प्रशंसा करता था। कभी-कभी मैं उससे बातें करने की भी कोशिश करता था, लेकिन शायद वह मेरी नजरों में आये परिवर्तन को पहचान गयी और मुझसे कन्नी काटने लगी। कहावत है कि इस तरह की बातें छुपाने से भी नहीं छुपती हैं। अतः एक दिन यह बात सब पर प्रकट हो गयी कि मैं उससे बातें करने की कोशिश करता हूँ। मुझे काफी डाँट पड़ी, लेकिन क्योंकि मैंने प्रत्यक्षतः कुछ नहीं किया था। अतः मुझे कोई सजा नहीं दी गयी, हालांकि उस

आत्मकथा भाग-1 अंश-21

जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, हाईस्कूल में मेरे अंक 71.2 प्रतिशत थे अर्थात् 70 प्रतिशत से अधिक। अतः मैं राष्ट्रीय योग्यता छात्रवृत्ति का पात्र था। सौभाग्य से मुझे इसके लिए कुछ नहीं करना पड़ा और मेरे लिए छात्रवृत्ति स्वतः स्वीकृत होकर आ गयी। उसकी राशि थी 50 रुपया प्रति माह जो कि उस समय मेरे लिए बहुत अधिक थी। अब तक हमारी आर्थिक स्थिति भी कुछ सुधर गयी थी। फिर भी इस छात्रवृत्ति की मुझे बहुत आवश्यकता थी। कक्षा 11 का मेरा समय ज्यादातर अपना इलाज कराने के लिए अस्पतालों के चक्कर लगाने में और बाकी अखबार पढ़ने में गुजर जाता था। अपनी कक्षाओं को मैं बहुत लापरवाही से लेता था। हाईस्कूल में अच्छे अंक आने के कारण मुझे कुछ घमंड भी था कि मैं इण्टर में भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो जाऊँगा। एक तो खराब स्टाफ, दूसरा पढ़ाई में लापरवाही और तीसरा अहंकार या अतिआत्मविश्वास- इन तीनों कारणों को मिलाकर जो परिणाम होना चाहिए था, वही हुआ अर्थात् मैं कक्षा 11 की अर्द्धवार्षिक परीक्षा में मात्र 43 प्रतिशत अंक प्राप्त कर सका। मैं रसायन विज्ञान में फेल भी था और अपनी जिन्दगी में पहली बार किसी विषय में फेल हुआ था। अर्द्ध

आत्मकथा भाग-1 अंश-20

अध्याय-5: दिल ही तो है उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो। न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाये।। कानपुर से वापस आने के बाद मैं इण्टर में दाखिला लेने अपने विद्यालय राजकीय इण्टर काॅलेज, आगरा गया और मुझे बिना किसी परेशानी के प्रवेश मिल भी गया, हालांकि मैं दो दिन देरी से पहुंचा था। हमारा हाईस्कूल का अध्यापक वर्ग जहाँ एकाध अपवादों को छोड़कर काफी सहृदय था, वहाँ इण्टर का अध्यापक वर्ग उसके ठीक विपरीत था, यहाँ भी एकाध अपवादों को छोड़कर। हमारे अंग्रेजी के अध्यापक थे श्री प्रेम नाथ सूद, जो अत्यन्त सहृदय और शालीन थे। वे मुझे बहुत प्यार करते थे और काफी प्रोत्साहन देते थे। वे केवल एक वर्ष तक हमें पढ़ा सके। उसके बाद वे किसी दूसरे इण्टर काॅलेज के प्रधानाचार्य होकर चले गये थे। उनके जाने के बाद जो महानुभाव पधारे थे, वे बहुत ही अनुपयोगी साबित हुए। हिन्दी के हमारे शिक्षक थे श्री चतुरी प्रसाद शर्मा। वे भी काफी अच्छे अध्यापक थे और कुल मिलाकर उनका व्यवहार भी मेरे प्रति काफी अच्छा था। वे हमारे कक्षा अध्यापक भी थे। इन दो अपवादों को छोड़कर हमारे बाकी समस्त अध्यापक काफी आत्म संतुष्ट और दूर-दूर रहन

आत्मकथा भाग-1 अंश-19

मेरी कक्षाओं के दिन पास आ रहे थे और मैं घोर निराशा की स्थिति में था। अपनी निराशा पर विजय पाने में मुझे कुछ समय लगा। मैं कल्पनाएं करता रहता था कि इस हालत में मैं किस तरह स्वाभिमान पूर्ण जीवन जी सकूँगा। साहित्यकार बनने से लेकर मजदूरी करने तक की संभावनाओं पर मैंने विचार कर डाला। मैंने यह भी सोच लिया था कि यदि मुझे कहीं कोई काम नहीं मिला, तो मैं कपड़े सिलकर भी अपना और अपने परिवार का पेट भर सकता हूँ। घर में रेडीमेड कपड़ों का काम होने के कारण मैं सिलाई मशीन अच्छी तरह चला लेता था और गाँव के लोगों द्वारा पहने जाने वाले सभी कपड़े सिल लेता था, हालांकि काटना नहीं आता था, जो सीखा जा सकता था। अन्त में, मैंने निश्चय किया कि सबसे पहले मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए। इसके बाद ही भविष्य के बारे में विचार करना ठीक रहेगा। उन दिनों मुझे ईश्वर पर कुछ अविश्वास सा हो गया था। मैं सोचने लगा था कि उसने जानबूझकर मेरी जिन्दगी खराब करने के लिए मुझे यह बीमारी दी है। मैं लगभग नास्तिक हो गया था। तभी मेरे सौभाग्य से मुझे अपने बाबा के बड़े भाई स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज, जिन्हें हम ‘लाल बाबा’ कहा करते थे, के मा

आत्मकथा भाग-1 अंश-18

कक्षा 9 में मेरा छात्र जीवन लगभग घटना विहीन रहा। मैं कक्षा में खूब मन लगाकर पढ़ा करता था और अपनी कक्षा के सर्वश्रेष्ठ चार-पांच छात्रों में गिना जाता था। हालांकि इस वजह से मैं कई साथी लड़कों की ईर्ष्या का पात्र भी बना रहता था और कुछ लड़कों से झगड़ा चलता रहता था। वार्षिक परीक्षा में कक्षाध्यापक श्री भट्ट जी ने मेरी अंकतालिका पर ‘संतोषजनक’ शब्द टिप्पणी के रूप में लिखा था, जिससे मुझे अत्यधिक प्रसन्नता हुई। वह वर्ष हम सब भाइयों के लिए सफलता का वर्ष था। मैं स्वयं तो अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ ही था, मेरे अन्य सभी भाई भी उत्तीर्ण हो गये थे। सबसे बड़े भाईसाहब श्री महावीर प्रसाद जो पिछले वर्ष बी.एससी. प्रथम वर्ष में कृपांक मिलने के बाद ही उत्तीर्ण हुए थे, इस वर्ष बी.एससी. द्वितीय वर्ष में स्पष्टतया उत्तीर्ण हो गये। उनसे छोटे भाई श्री राम मूर्ति, जो पिछले वर्ष सी.पी.एम.टी. में पास नहीं हो पाये थे और बी.एससी. कर रहे थे, इस बार न केवल बी.एससी. में पास हो गये, बल्कि सी.पी.एम.टी. के साथ ही दिल्ली विश्वविद्यालय की मेडिकल प्रवेश परीक्षा में भी उत्तीर्ण हो गये थे। आशा के अनुरूप उन्होंने आगरा के ही सर

आत्मकथा भाग-1 अंश-17

अपने सभी अध्यापकों में जिनसे मुझे बहुत चिढ़ थी वे थे हमारे हिन्दी के शिक्षक श्री केशव देव माहेश्वरी, जिन्हें लड़के ‘के.डी.’ कहकर पुकारते थे। झकाझक सफेद कुर्ते और पाजामे में वे विद्यालय पधारा करते थे। हमारा सबसे पहला पीरियड हिन्दी का ही होता था, अतः वे सुबह-सुबह आकर कुर्सी में धँस जाते थे। प्रायः उनकी आँखें लाल पड़ी रहती थीं और लड़कों का ख्याल था कि वे भंग-भवानी के शौकीन हैं। उनका सबसे पहला काम होता था अपने किसी मुँहलगे लड़के (चमचे) को भेजकर तम्बाकू वाला पान मँगवाना। फिर वे किसी दूसरे चमचे की तरफ इशारा करते और कहते- ‘अबे गधे! खड़ा हो जा, पढ़!’ वह लड़का तुरन्त हिन्दी की कोई भी किताब खोलकर पढ़ना शुरू कर देता था। बाकी लड़के बोर होते हुए सुनते रहते थे और माहेश्वरी जी ऊँघते हुए पान की जुगाली करते रहते थे। घंटी बजते ही वे उठकर चल देते थे। उनसे मेरी चिढ़ने की वजह यह थी कि वे मेरे जैसे पढ़ने वाले और उनकी चमचागीरी न करने वाले लड़कों से बहुत नाराज रहते थे और प्रायः उन्हें अपमानित करने का मौका ढूँढ़ते रहते थे। इसके विपरीत वे अपनी चमचागीरी करने वाले और सदा फिसड्डी रहने वाले लड़कों से बहुत खुश रहते थे। उनका दू

आत्मकथा भाग-1 अंश-16

आगरा में स्वयं को समंजित करने में अर्थात् खपाने में मुझे थोड़ा समय लगा। अपने छोटे मामाजी के समवयस्क लड़के अरुण से प्रायः मेरा झगड़ा चलता रहता था, क्योंकि हम दोनों का स्वभाव ही ऐसा था। इसमें प्रायः मुझे ही डाँट खानी पड़ती थी। कभी-कभी यह झगड़ा बहुत गंभीर रूप ले लेता था। इस झगड़े का अन्त तभी हो पाया, जब हमने अपना अलग मकान किराये पर ले लिया। हालांकि वह उसी मुहल्ले में था। मेरा स्कूल हमारे घर लोहामंडी से एक मील से भी अधिक (लगभग 2 किमी) दूर पंचकुइयाँ पर था और मुझे वहाँ तक पैदल ही जाना पड़ता था। पैदल जाना मेरे लिए कोई बड़ी समस्या नहीं थी, क्योंकि पैदल चलने का मुझे काफी अभ्यास था और वह अभ्यास अभी तक बना हुआ है। अपनी कक्षा में मैं कदकाठी में सबसे छोटा था, लेकिन पढ़ने-लिखने में काफी आगे भी था। लड़कों ने मेरा नाम ‘चुहिया’ रख छोड़ा था और इसी बात पर उनसे मेरा प्रायः झगड़ा हो जाया करता था। लेकिन कई लड़के ऐसे भी थे, जिनके साथ मेरी अच्छी दोस्ती थी और वे प्रायः झगड़ों में मेरा पक्ष लिया करते थे। मैं उन दिनों अंग्रेजी में कुछ कमजोर था, हालांकि अपने गाँव के स्कूल में मुझसे ज्यादा अंग्रेजी जानने वाला दूसरा कोई नह

आत्मकथा भाग-1 अंश-15

आगरा जाते समय हमें सबसे ज्यादा चिन्ता अपनी दादी की थी, जिसे हम ‘अम्मा’ कहते थे। हम सोचते थे कि पता नहीं हमारे आगरा जाने के बाद वे किस तरह रहेंगी। उनको आगरा ले जाना भी संभव नहीं था, लेकिन ईश्वर की लीला कुछ ऐसी हुई कि हमारे आगरा जाने के दो-तीन महीने पहले ही अचानक उनका देहान्त हो गया। हमें उनके स्वर्गवास का बहुत दुःख हुआ, लेकिन इसे ईश्वर की इच्छा समझकर संतोष कर लिया। मेरा कक्षा 8 का परीक्षाफल अभी तक निकला नहीं था, हालांकि मुझे पूरा विश्वास था कि मुझे प्रथम श्रेणी तो मिलेगी ही। लेकिन अनिश्चितता के कारण मन ही मन चिन्तित भी था। उन दिनों हमारे गाँव में कोई अखबार नहीं आता था। अचानक एक दिन गाँव का एक लड़का मेरे पास आया और मेरा रोल नम्बर पूछने लगा मैं समझ गया कि मेरा परीक्षाफल आ गया है। मन ही मन घबराता हुआ और हनुमान जी का नाम लेता हुआ मैं उसके साथ दौड़ पड़ा। जाकर देखा तो मेरा रोल नम्बर प्रथम श्रेणी में दर्ज था। मुझे बेइन्तहा खुशी हुई और इस बात का संतोष भी हुआ कि मैंने अपनी प्रतिष्ठा बचा ली। मैंने तुरन्त घर आकर माताजी और पिताजी के पैर छुए तथा अन्य बड़ों के भी पैर छूकर आशीर्वाद लिया। मुझे उस सम

आत्मकथा भाग-1 अंश-14

अध्याय-4:  पलायन क्या पूछता है तू मेरी बरबादियों का हाल? मुट्ठी में ख़ाक लेके हवा में उड़ा के देख कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के बाद मेरी जिन्दगी में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। उन दिनों हमारे यहाँ रेडीमेड कपड़ों का काम हुआ करता था। हमारे पिताजी तथा दोनों चाचाजी साझे में ही दुकान चलाया करते थे। दुकान पर कई कारीगर काम करते थे और काफी मात्रा में कपड़ा बिक जाता था। जैसा कि प्रायः होता है घर में कलह भी बनी रहती थी, क्योंकि जहाँ तीन परिवार एक साथ रहेंगे, वहाँ कुछ न कुछ खटपट तो होगी ही। यह बात अवश्य है कि हमारे घर में कलह की मात्रा कुछ अधिक थी, शायद इसीलिए हमारा शारीरिक विकास अधिक नहीं हुआ। जिस वर्ष मैंने कक्षा आठ की परीक्षा दी थी, उसी वर्ष मेरे बड़े भाई श्री गोविन्द स्वरूप कक्षा 10 की परीक्षा में बैठे थे और उनके पास काॅमर्स के विषय थे। उनसे बड़े भाई श्री राम मूर्ति विज्ञान विषयों से कक्षा 12 की परीक्षा दे रहे थे। ये दोनों हमारे गाँव के पास के ही एक कस्बे बिसावर में श्री बृजेन्द्र जनता इंटर काॅलेज के छात्र थे। उस काॅलेज में उन दिनों इंटर से आगे की पढ़ाई नहीं होती थी और कामर्स की पढ़ाई तो कक्षा 10 के बा

आत्मकथा भाग-1 अंश-13

उन दिनों मेरी रुचि बागवानी में भी हो गयी थी। मैंने अपने नौहरे (अर्थात् वह स्थान जहाँ पालतू पशु बांधे जाते हैं) में खाली जगह में कई क्यारियाँ बना ली थीं, जिनमें मैंने कई तरह की चीजें बो रखी थीं और गैंदे की बहुत अच्छी फुलवारी भी बनायी थी। मैं प्रतिदिन मुँह अंधेरे ही उठकर क्यारियाँ देखने भागता था और संतुष्ट हो जाने के बाद ही शौच करने के लिए खेतों की तरफ जाता था। लेकिन तभी एक ऐसी घटना घट गयी कि मेरा उत्साह प्रायः समाप्त हो गया। हुआ यह कि एक दिन मैं अँधरे में ही क्यारियों के पास आया, तभी मेरा दायां पैर किसी गुदगुदी चीज पर पड़ा, जो मेरे पैर से लिपट गयी थी। मैं चैंक पड़ा और साँप की सम्भावना का ख्याल करके जोर से पैर को झटक दिया। वह चीज दूर गिर पड़ी और मैंने देखा कि वह साँप ही था, लगभग डेढ़-दो फुट का। वह शायद बच्चा था और जहरीला भी नहीं था। हमारे नौहरे के पास ही एक पोखर थी, जिसमें पानी के काफी साँप रहा करते थे। उन्हीं में से कोई शायद रात में इधर चला आया था। साँप को देखते ही मैं डरकर उल्टा भागा और बाहर सो रहे अपने ताऊजी श्री दानीराम को जगा ले गया। वे तुरन्त मेरे साथ अन्दर गये, लेकिन तब तक साँप भा

आत्मकथा भाग-1 अंश-12

कक्षा 5 से कक्षा 6 में दूसरे विद्यालय में आने के बाद भी पहले विद्यालय से मेरा नाता नहीं टूट सका था। वह वर्ष 1969 था, अतः अक्टूबर में गाँधी शताब्दी का उत्सव जिला स्तर पर पूरे देश में हो रहा था। हमारे मथुरा जिले का सम्मिलित उत्सव छाता नामक कस्बे में था। प्राइमरी स्कूल के प्रधानाध्यापक श्री लक्ष्मी नारायण शर्मा ने अछूतोद्धार पर एक नाटक तैयार किया था, जिसमें मुझे गाँधी जी की भूमिका दी गई थी। एक दिन हम अपने गाँव से चलकर बस द्वारा पहले अपने ब्लाक मुख्यालय बल्देव (दाऊजी) पहुँचे, फिर वहाँ से दूसरी बस से मथुरा होकर छाता पहुँचे थे। हमारा भोजन बनाने के लिए गाँव का एक आदमी भी हमारे साथ था। हमारे साथ जूनियर हाईस्कूल के दूसरे कुछ लड़के भी थे, जो एक लोकगीत प्रस्तुत करने जा रहे थे। उनमें मेरे बड़े भाई श्री गोविन्द स्वरूप और उन्हीं की कक्षा के श्री चन्द्रभान आदि थे। नाटक की प्रस्तुति वाले दिन प्रधानाध्यापक जी ने मेरा सिर उस्तरे से बिल्कुल साफ करा दिया था तथा एक नजर का चश्मा भी मेरे लगा दिया था, जिससे मेरा हुलिया बिल्कुल महात्मा गाँधी जैसा हो गया था। नाटक काफी सफल रहा था और मेरा पार्ट खास तौर पर सराहा

आत्मकथा भाग-1 अंश-11

बाबा के ही गाँव कारब के निवासी एक अन्य अध्यापक थे श्री बाबू लाल शास्त्री। शास्त्री जी हिन्दी और संस्कृत के विद्वान थे। संस्कृत पढ़ाने का उनका तरीका बहुत अच्छा था। यही कारण है कि संस्कृत जैसे कठिन विषय में भी मेरी रुचि अच्छी तरह जागृत हो गयी थी। आगे हाईस्कूल तक मेरे पास संस्कृत एक विषय के रूप में रहा और मेरा संस्कृत का ज्ञान अभी भी इतना है कि हाईस्कूल को सरलता से पढ़ा सकता हूँं। शास्त्री जी की प्रेरणा से मैंने सैकड़ों श्लोक याद कर रखे थे और उन्हें लय के साथ गाया करता था। मैं कक्षा सात में ही था कि उनका स्थानान्तरण दूसरे गाँव में हो गया। उनकी विदाई के समय मुझे भी बोलने के लिए खड़ा किया गया। मैंने उनसे ज्ञान दान के प्रति आभार व्यक्त किया तथा बिछुड़ने पर दुःख प्रकट किया, जैसी कि परम्परा है। लेकिन मेरे वक्तव्य में नयी बात यह थी कि मैंने उनसे देशभक्त और विद्वान् बनने का आशीर्वाद भी माँगा था। मेरी इस भावना की समस्त अध्यापकों ने बहुत सराहना की थी। हमें अंग्रेजी पढ़ाया करते थे श्री कारेलाल शर्मा, जो बिसावर के पास के किसी गाँव के निवासी थे। अपने नाम के अनुसार उनका रंग एकदम काला था तथा कद काठी में भ