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आत्मकथा भाग-2 अंश-41

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उन्हीं दिनों उ.प्र. के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की सरकार ने निहत्थे कारसेवकों पर गोलियाँ बरसाकर सैकड़ों रामभक्तों के प्राण ले लिये थे। इसके बाद मैंने अखबारों में लिखा था कि ‘वर्तमान सरकारों के सत्ता में रहते हुए राम मंदिर बनने की कोई संभावना नहीं है। इसका सबसे अच्छा, सुनिश्चित और संवैधानिक उपाय यह है कि हम राममंदिर बनाने का समर्थन करने वाले दलों की सरकार बनवायें।’ इसके छपने के बाद मुझे एक अज्ञात सज्जन का एक पत्र मिला, जिसके पते में मेरा नाम विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ की जगह विजय कुमार सिंघल ‘सुजान’ लिखा हुआ था। यह पत्र अभी भी मेरे पास कहीं सुरक्षित रखा है। राममंदिर आन्दोलन के समर्थन में छपे अपने कुछ पत्र मैं यहाँ दे रहा हूँ। मेरे पत्र यों तो बहुत से अखबारों में जाते थे और छपते भी होंगे, परन्तु मेरे पास सारी कतरनें नहीं आती थीं। मित्रों की कृपा से जो भी कतरनें मुझे उपलब्ध हो जाती थीं, उनको मैं एक डायरी में चिपका लेता था। ये पत्र उसी डायरी में से छाँटकर लगाये गये हैं। उन दिनों इंदौर से एक छोटा सा साप्ताहिक पत्र छपा करता था- ‘ज्ञान रंजन ट्रेजर’। यह मुख्य रूप से सामान्य ज्ञान बढ़ाने और कम

आत्मकथा भाग-2 अंश-40

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उन्हीं दिनों मुझे अखबारों में सम्पादक के नाम पत्र लिखने का शौक लग गया था। इसकी शुरूआत कुछ इस प्रकार हुई थी कि जब मैं लखनऊ में था, तो ‘जनसत्ता’ अखबार मँगाकर पढ़ा करता था। तब उसे बहुत निष्पक्ष अखबार माना जाता था। तभी मैंने भोपाल गैस त्रासदी पर एक व्यंग्यात्मक कविता उसके सम्पादक को लिख भेजी। आश्चर्य कि वह छप भी गयी। मेरे कई परिचितों ने भी उस कविता को पढ़ा था और उसकी प्रशंसा की थी। वह कविता मैं नीचे दे रहा हूँ- भारत चलो दुनिया के शोषको और हत्यारो एक हो और भारत की ओर चलो यहाँ आजकल आपकी मस्ती ही मस्ती है क्योंकि इंसानों की जान यहाँ सबसे सस्ती है। हिटलर! अब तू भी अपनी कब्र से उठ जा और भारत आकर आबादी घटाने में जुट जा। यहीं पर अपने गैस चैम्बर बना यहूदी तो तुमने बहुत मारे होंगे अब भारतीयों की हत्या का मजा लूट ! एक जान की कीमत है केवल तीन हजार और गाँधी जयन्ती पर विशेष छूट !! (जनसत्ता, दिल्ली, दि. 4.4.1989) मुझे इसके छपने की आशा नहीं थी, लेकिन जब यह छप गयी तो मुझे बहुत सन्तोष हुआ। तब मैंने नियमित रूप से समाचार पत्रों में लिखने का निश्चय कर लिया। मुख्य रूप से मैं जनसत्ता (दिल्ली) और लखनऊ-वाराणस

आत्मकथा भाग-2 अंश-39

परिशिष्ठ ‘ख’ में मैं लिख चुका हूँ कि दो दिन बाद की अगली फ्लाइट मुझे आसानी से मिल गयी थी और मैं आराम से दिल्ली के पालम हवाईअड़डे पर उतर गया था। उस समय रात के 12 बजे थे। मेरे पास टैक्स देने लायक कोई वस्तु नहीं थी, इसलिए मैं आराम से ग्रीन चैनल से निकल आया। यहाँ मैंने एक बहुत बड़ी भूल कर दी। मुझे यह कल्पना नहीं थी कि मेरे घरवाले और ससुरालवाले मेरे लिए कितने परेशान हो रहे होंगे। मुझे सबसे पहले दिल्ली पहुँचते ही या सुबह ही आगरा फोन करा देना चाहिए था कि मैं यहाँ सुरक्षित पहुँच गया हूँ और जल्दी ही आगरा पहुँच जाऊँगा। परन्तु यह फोन कराने की बात मेरे दिमाग में नहीं आयी। मुझे चिन्ता तो अपने डालरों को रुपयों में बदलवाने की थी। अतः मैं सुबह होते ही सिटी बस से सबसे पहले अशोका होटल गया और वहाँ डालर देकर रुपये प्राप्त किये। वहाँ से मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन गया। मेरा विचार था कि कोई न कोई गाड़ी आगरा की तरफ जा ही रही होगी, मैं उसमें चढ़कर 2-3 घंटे में आगरा पहुँच जाऊँगा। लेकिन यहाँ मैं बहुत बड़ी भूल पर था, क्योंकि उन दिनों अयोध्या में कारसेवा होने वाली थी और उ.प्र. की मुलायम सिंह सरकार ने चारों ओर से प

आत्मकथा भाग-2 परिशिष्ट ‘ख’ - मेरी जापान यात्रा (अंश 12 अंतिम)

27 अक्तूबर, 1990 (शनिवार) लगभग 5 बजे सुबह मेरी नींद खुली। आस-पास और भी लोग बैठे थे तथा कुछ सो रहे थे। मेरा सामान सही सलामत था। वैसे मैंने अपना कपड़े का बैग जिसमें मेरा पासपोर्ट, टिकट, अन्य कागजात और कुछ मालमत्ता था, तकिये की तरह सिर के नीचे लगा रखा था। बाकी सामान की मुझे उतनी चिन्ता नहीं थी। सबसे पहले बाथरूम में जाकर मैंने कुल्ला-दातुन किया, हाथ-मुँह धोये और शौच से भी निवृत्त हुआ। थोड़ी शौच आने पर मुझे प्रसन्नता हुई, क्योंकि पिछले दिन मैंने कुछ विशेष नहीं खाया था। नहाने का प्रश्न ही नहीं था और कपड़े मैंने इसलिए नहीं बदले कि अभी मुझे एक रात और सोना था तथा मेरे पास केवल एक जोड़ी कपड़े धुले हुए रह गये थे। इसलिए मैंने तय किया कि आज केवल पूरी आस्तीन की जर्सी पहनूँगा तथा कल शर्ट-पैन्ट बदल लूँगा। एक रात आराम से गुजर जाने पर मुझे संतोष हुआ। मैंने तय किया कि आज दिन भर यहीं बैठे रहना है, क्योंकि इससे सुरक्षित और आरामदायक जगह यहाँ और कोई नहीं है। आस-पास मैंने देख लिया कि वहाँ शाकाहारी खाना कहीं उपलब्ध नहीं है। इसलिए दिन भर मुसम्मी के रस पर रहा। 100 येन के एक सिक्के में एक बोतल (करीब 200 मिलीली

आत्मकथा भाग-2 परिशिष्ट ‘ख’ - मेरी जापान यात्रा (अंश 11)

मेरी सबसे बड़ी समस्या तो हल हो गयी कि दो दिन बाद की उड़ान बुक हो गयी, वह भी बिना कुछ खर्च किये, परन्तु एक नयी समस्या पैदा हो गयी कि ये दो दिन कहाँ गुजारे जायें। इसका सरल हल तो यह था कि किसी होटल में ठहरा जाय, परन्तु वापस टोकियो जाकर मैं रिस्क लेना नहीं चाहता था। इसलिए मैंने सोचा कि यदि पास में ही कोई होटल हो, तो वहाँ ठहर सकता हूँ। मैंने एअरपोर्ट पर पूछ लिया था कि वहाँ कोई वेटिंगरूम नहीं था, केवल लाबियों में कुर्सियाँ पड़ी हुई थीं। यहाँ होटल बुक करने वाले एजेन्टों के काउन्टर हैं जिन पर कमसिन लड़कियाँ बैठी रहती हैं। मैंने एक लड़की से होटल के बारे में पूछा। बड़ी मुश्किल से उसकी समझ में यह बात आयी कि मैं सुन नहीं सकता, इसलिए लिखकर बात करनी पड़ेगी। उसने बताया कि पास में ही एक होटल में 11000 (जी हाँ ग्यारह हजार) येन प्रतिदिन पर कमरा मिल जायेगा। मेरे पास न तो इतने रुपये फालतू थे और न मैं एक रात सोने के लिए इतना (लगभग 1500 रुपये) खर्च करने को तैयार था। इसलिए मैंने कहा कोई सस्ता होटल बताओ। वह कहने लगी कि यही सबसे सस्ता है। मैं इतना खर्च करने को तैयार नहीं था। मैंने सोचा कि श्री हिरानो को सूचना द

आत्मकथा भाग-2 परिशिष्ट ‘ख’ - मेरी जापान यात्रा (अंश 10)

26 अक्तूबर, 1990 (शुक्रवार) आज हमारा टोकियो में अन्तिम दिन था। मेरी उड़ान इटालियन एयरलाइन्स अलइटालिया के साथ बुक थी, जो रात 7 बजे जाती थी। इसलिए मैंने होटल से एअरपोर्ट तक जाने के लिए बस में सीट बुक कर ली। वह बस 3.15 बजे दोपहर बाद जाती थी और 5 बजे हवाई अड्डे पहुँचा देती थी। मैंने सोचा कि अगर थोड़ा बहुत लेट भी हो गयी, तो 5.30 या हद से हद 6 बजे तक वहाँ पहुंच जाऊंगा और उड़ान पकड़ लूँगा। मेरे पास तीन बजे तक का समय था। मेरा विचार माउन्ट फूजी देख लेने का था, जो वहाँ से काफी दूर थी। पता चला कि अगर गये तो तीन बजे तक लौटना सम्भव नहीं होगा और फ्लाइट छूट जायेगी, इसलिए यह विचार त्याग दिया। श्री वी.के. गुप्ता जो उसी उड़ान में मेरे साथ दिल्ली जाने वाले थे प्रेसीडेन्ट होटल में ठहरे थे। उनका विचार अगले दिन खरीदारी करने का था। इसलिए हमने यह तय किया कि मैं प्रातः 9 बजे तक उनके होटल में आ जाऊँगा और वहाँ से साथ चलेंगे। परन्तु इस दिन कुछ बारिश हुई और मौसम जरा ठंडा था इसलिए मैं नहीं जा पाया। करीब 8 बजे जब मौसम खुला तो मैं निकला। मेरा विचार तो प्रेसीडेन्ट होटल जाने का था, परन्तु अकेला होने के कारण मैं गलत

आत्मकथा भाग-2 परिशिष्ट ‘ख’ - मेरी जापान यात्रा (अंश 9)

साढ़े बारह बजे दोपहर के खाने का समय हुआ। सबके लिए मांसाहारी भोजन आया। मेरे लिए चावल तथा सूखी सब्जी बनी एक प्लेट आयी। सब्जी में अनेक तरह की सब्जियां- भिंडी, बैगन, गोभी, कुकुरमुत्ता (मशरूम), टमाटर तथा एक-दो चीजों के नाम मैं जानता नहीं, वगैरह थे। मैंने चावलों के साथ सब खाये। इससे पहले दिन शाम को मैंने कुछ खास नहीं खाया था, इसलिए काफी भूखा था। एक प्लेट खाने के बाद मैंने थोड़ा सा और खाने की इच्छा व्यक्त की, तो पता चला कि वह सब्जी अब खत्म हो गयी है। मेरे सामने मीनू लाया गया। मैंने उसमें से वेजीटेबिल करी तथा चावल मंगाये, जिनकी कीमत थी मात्र 1200 येन अर्थात केवल 160 रुपये, जो कि हमारे यहां 10 रुपये से ज्यादा की नहीं होगी। जब वह आया तो मुझे लगा कि इतनी सारी मैं नहीं खा पाऊंगा, परन्तु श्री हिरानो ने कहा कि खूब पेट भरकर खा लो। मैंने ऐसा ही किया। वह काफी स्वादिष्ट था, इसलिए खूब खाया। फिर भी थोड़ा सा बच ही गया। खाने के बाद फिर दूसरा सत्र चालू हुआ। इस बार विचारणीय विषय था ”एशियाई भाषाओं का मानकीकरण तथा कम्प्यूटरों में उनका अधिक से अधिक उपयोग“। इसमें अनेक देशों ने भाग लिया था, परन्तु दुःख है कि भारत

आत्मकथा भाग-2 परिशिष्ट ‘ख’ - मेरी जापान यात्रा (अंश 8)

पहली बार मैं रेल में तब चढ़ा जब हमें सुकूबा जाना था। करीब 11 बजे हम रेलवे स्टेशन पहुँचे। वहाँ से टिकट लेकर गाड़ी में बैठकर चले। उससे पहले ही हमने रेलवे स्टेशन से अपने लिए खाने पीने की चीजें खरीद ली थीं। मैंने एक तरह की चिप्स तथा सैंडविच खरीदे। साथ ही दो गिलास पानी भी पैक करवा लिया (जी हाँ, पानी)। मेरे दुर्भाग्य से सैंडविचों में मीट था। इसलिए मैंने वे श्री हिरानो को दे दिये। केवल चिप्स खाकर और दो गिलास पानी पीकर मैंने अपना काम चलाया। करीब 1 बजे हम सुकूबा स्टेशन पर उतरे। वहाँ से टैक्सी में विज्ञान नगर गये। वहाँ पहले हमने फोटो खिंचवाये। कैमरा तब भी मेरे पास नहीं था। श्री हिरानो ने ही ज्यादातर फोटो खींचे। तभी उस सेंटर की एक देवी जी, जिनकी उम्र 50 के आस-पास रही होगी, हमें लेने आ गयीं। सबसे पहले हम एक विभाग में पहुँचे, जहाँ एक सज्जन मुख्य शोधकर्ता हैं। वे कम्प्यूटर साॅफ्टवेयर में जापानी भाषा के अधिकाधिक प्रयोग पर शोध कर रहे हैं और एक विलक्षण तरीके से अंग्रेजी से जापानी तथा जापानी से अंग्रेजी में अनुवाद पर भी शोध कर रहे हैं। उनका विषय मेरी रुचि का था, इसलिए मैंने बड़ी दिलचस्पी से सब देखा।

आत्मकथा भाग-2 परिशिष्ट ‘ख’ - मेरी जापान यात्रा (अंश 7)

23 अक्टूबर, 1990 यह हमारे घूमने का दूसरा दिन था। श्री हिरानो के निर्देशानुसार हम 8.10 से पहले ही नीचे लाबी में पहुँच गये थे। वे भी समय पर आ गये। वहाँ से हमें निक्की डाटा बेस देखने जाना था। इधर से हम फिर टैक्सी में गये। मैंने कहा था कि अगर वहाँ बस जाती हो, तो हम बस में जाने को तैयार हैं, परन्तु वे न माने। निक्की डाटा बेस को ढूँढ़ने में उन्हें थोड़ा समय लगा, परन्तु मिल गया। हम वहाँ गये, तो बड़ा स्वागत हुआ। वहाँ के लोग अंग्रेजी कम जानते थे, परन्तु एक-दो ऑफीसर अच्छी अंग्रेजी जानने वाले मिल ही जाते हैं। उन्हीं में से एक श्री नाओमी आसो ने सबसे पहले हमें निक्की डाटा बेस के बारे में जानकारी दी। काफी प्रभावपूर्ण जानकारी थी। यह डाटा बेस हमारे यहाँ के टाटा-बिरला की तरह एक धनकुबेर की निजी सम्पत्ति है। इसमें जापान तथा एशिया के कई देशों की हजारों कम्पनियों के बारे में जानकारी भरी रहती है, जो प्रत्येक मिनट सुधारी जाती रहती है। दुनिया भर के नये-नये आर्थिक-राजनैतिक समाचारों, विचारों तथा लेखों का भी इसमें भंडार रखा जाता है, जिन पर 4000 से अधिक कर्मचारी दिन-रात काम करते हैं। प्रत्येक ग्राहक शुल्क देकर

आत्मकथा भाग-2 परिशिष्ट ‘ख’ - मेरी जापान यात्रा (अंश 6)

जब हम प्रदर्शनी से बाहर आये तो सबके पास ढेर सारे पैम्फलेट (जो ज्यादातर ने जबर्दस्ती पकड़ा दिये थे) तथा अनेक तरह के थैले थे। काफी वजन हो गया था, इसलिए एक जगह जाकर मैंने यह किया कि थैलों को तो मोड़कर एक थैले में रखा और जो पैम्फलेट थे उनमें से केवल अंग्रेजी के काम के पैम्फलेट अलग करके बाकी को एक कूड़े के डिब्बे को समर्पित कर दिया। फालतू वजन कम हो जाने से मुझे बड़ी राहत मिली। लौटते समय हमें बस में एक-एक पैकेट दिया गया, जिसमें डबल रोटी और मक्खन था। एक डबल रोटी के बीच में मक्खन के बजाय कुछ और था, जिसका स्वाद मुझे अजीब का लगा। मैंने पूछा यह क्या है तो पता चला कि वह मछली है। मैंने तुरन्त वैसी सारी डबल रोटियां अलग की तथा केवल ब्रेड-मक्खन वाली रोटियाँ खायीं। मैंने यह भी कसम खायी कि आगे से प्रत्येक चीज खाने से पहले बहुत सावधान रहूंगा। वहाँ से हम एक पिकनिक स्पाट पर आये, शायद इम्पीरियल पैलेस। वहाँ एक नदी बहती रहती है तथा काफी हरियाली भरा मैदान है। वहाँ लोग आते हैं, फोटो खिंचवाते हैं तथा टहलते हुए चले जाते हैं। हमारी तरह घास पर चादर बिछाकर बैठकर खाना-पीना तथा सोना वहाँ नहीं चलता। वैसे वहाँ घास के

आत्मकथा भाग-2 परिशिष्ट ‘ख’ - मेरी जापान यात्रा (अंश 5)

22 अक्टूबर 1990 सुबह 5.00 बजे मेरी नींद खुल गयी। श्री हिरानो के निर्देशानुसार मुझे ठीक 7.50 पर नीचे लाबी में पहुँच जाना था। इसलिए पहले मैंने दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर नाश्ता किया। बाहर से कोकाकोला लाकर पिया। थोड़ा सा लिखा और फिर चलने के लिए तैयार हो गया। यहाँ ठंडे-गर्म पेय बेचने की मशीनें लगी हुई हैं। प्रत्येक पेय का मूल्य समान है, परन्तु जगह-जगह के हिसाब से मूल्य बदलता है। सार्वजनिक स्थानों में एक डिब्बे की कीमत 100 येन है, जबकि होटलों में 150 येन और कहीं-कहीं 200 येन। इन मशीनों में हर तरह के पेय के डिब्बों के नमूने प्रदर्शित होते हैं, जिनके नीचे बत्ती वाले बटन है। प्रत्येक पेय टिन के खास डिब्बों में होता है। आप अपने सिक्के या नोट निर्धारित स्थान पर डालें। जितने के सिक्के या नोट आपने दिये होंगे, उतनी संख्या एक जगह उभर आयेगी। यदि यह चीज खरीदने के लिए काफी हैं, तो जो डिब्बे उपलब्ध होंगे उनके नीचे की बत्ती जल जायेगी। आप अपनी पसन्द के डिब्बे के बत्तीदार बटन को दबाइये और नीचे एक खाने में वही डिब्बा हाजिर हो जायेगा। यदि आपके पैसे बचते होंगे तो उनके बराबर के सिक्के भी एक दूसरे खाने