आत्मकथा भाग-2 अंश-23
लखनऊ में रहते हुए मेरी रुचि प्राकृतिक चिकित्सा की ओर हो गयी थी। मैं ऐलोपैथी, होम्योपैथी और आयुर्वेदिक पद्धतियों से पर्याप्त समय तक अपने कानों का इलाज करा चुका था, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। इससे मेरा विश्वास इन पद्धतियों में कम हो गया था और प्राकृतिक चिकित्सा में बढ़ रहा था। मैंने प्राकृतिक चिकित्सा का काफी साहित्य पढ़ा था और मुझे यह विश्वास हो गया था कि सबसे अधिक वैज्ञानिक और पूर्ण चिकित्सा पद्धति यही है। इसलिए मैं अपने कानों का इलाज इस पद्धति से कराना चाहता था। आरोग्य मंदिर, गोरखपुर भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रमुख केन्द्र और तीर्थ माना जाता है। मैंने उनसे पत्र-व्यवहार किया तो वहाँ के संचालक डाॅ. विट्ठल दास मोदी ने मुझे ठीक होने की गारंटी तो नहीं दी, परन्तु दो-तीन माह का समय लेकर आने की सलाह दी। मैं श्री संजय मेहता के साथ गोरखपुर जाने को तैयार हुआ और लिखा कि हम इस तारीख को पहुँचेंगे। तभी ठीक एक दिन पहले उनका पत्र आ गया कि पहले वे मेरे मामले का अध्ययन करेंगे, तब बुलायेंगे। शायद वे अपनी ही चिकित्सा के प्रति आश्वस्त नहीं थे या फिर मेरा रोग ही टेढ़ा है। इसलिए उन्होंने चुप्पी साध ली।