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आत्मकथा भाग-3 अंश-46

चंडीगढ़ का तीसरा आकर्षण है यहाँ का रोज गार्डन। इसमें गुलाब के हजारों तरह के फूलों की क्यारियाँ हैं। कहा जाता है कि यह एशिया का दूसरा सबसे बड़ा रोज गार्डन है। (पहला सबसे बड़ा रोज गार्डन दिल्ली के राष्ट्रपति भवन के बाग को माना जाता है।) रोज गार्डन सेक्टर 16 में सेक्टर 17 से लगभग सटा हुआ है और आकार में काफी बड़ा है। इसमें कोई टिकट नहीं लगती, इसलिए पूरे वर्ष दिनभर और देर रात तक यहाँ भीड़ लगी रहती है। मुझे इसमें घूमने में बहुत आनन्द आता था, परन्तु जाने का मौका कम ही मिलता था, यह क्योंकि पंचकूला से बहुत दूर है। इसमें साल में एक बार फूलों की प्रदर्शनी होती है, जो देखने लायक होती है। अच्छे फूलों और सजावटों को पुरस्कार भी दिये जाते हैं। इस प्रदर्शनी में बहुत भीड़ होती है। चंडीगढ़ में इसके अलावा और भी कई आकर्षण हैं, परन्तु हमें उनको देखने का अवसर नहीं मिला। चंडीगढ़ से लगभग 6-7 किमी दूर छतबीड़ नामक चिड़ियाघर है। एक बार मैं रवीन्द्र के साथ बच्चों को वहाँ घुमाने ले गया था। हालांकि वहाँ जानवर अधिक नहीं है, लेकिन चिड़ियाघर काफी बड़ा है। यों तो चंडीगढ़ के प्रत्येक सेक्टर में अच्छे मार्केट हैं, लेकिन उसक

आत्मकथा भाग-3 अंश-45

कार चलाना सीखना सबसे पहले मैंने और दीपांक ने अपने ड्राइवर रवीन्द्र सिंह से कार चलाना सीखा। आश्चर्य कि दीपांक मात्र एक सप्ताह में ही कार अच्छी तरह चलाने लग गया। मैंने भी लगभग 2 सप्ताह में काम चलाऊ कार चलाना सीख लिया। श्रीमतीजी कार चलाना पहले से जानती थीं, उनके पास ड्राइविंग लाइसेंस भी था, लेकिन अभ्यास छूट गया था। शीघ्र ही उनको भी अभ्यास हो गया। इस प्रकार रवीन्द्र ने हम तीनों को कार चलाना सिखा दिया। मैं ऑफिस जाते समय प्रायः स्वयं कार चलाकर ले जाता था और उसी तरह वापस ले आता था। रवीन्द्र मेरे पास ही आगे वाली सीट पर बैठा रहता था और आवश्यक होने पर बताता था कि क्या करना है। हमारा विचार पहले उसको केवल 2 महीने रखने का था, परन्तु आराम को देखते हुए हमने उसे 6 माह रखा। फिर हमें लगा कि उसको मिलने वाला वेतन बहुत कम है और हमारी सामर्थ्य इससे अधिक देने की नहीं थी, इसलिए हमने बगल में रहने वाले डा. चड्ढा के ऑफिस में उसको ड्राइवर लगवा दिया, जहाँ उसे 3500 रु. वेतन मिलता था। वहाँ उसने केवल दो माह काम किया। उसका वेतन और काम का समय सभी ठीक था। बाहरी नगरों में गाड़ी ले जाने पर भी उसे कोई आपत्ति नहीं

आत्मकथा भाग-3 अंश-44

शाखाओं की समस्याओं का समाधान फोन काॅलों के साथ-साथ शाखाओं से समस्याओं के पत्र और डाटा भी आते थे। मेरा कार्य था- ऐसे सभी पत्रों को एक रजिस्टर में चढ़ाकर अधिकारियों को देना, ताकि वे समस्याएँ हल कर सकें। मैं किसी-किसी पत्र के साथ आने वाली सीडी को भी क्रम संख्या डालकर व्यवस्थित रखता था, ताकि किसी भी समय किसी भी शाखा की कोई भी सीडी तत्काल निकाली जा सके। मेरा यह कार्य अधिकारियों को बहुत पसन्द आया, क्योंकि उनका बहुत सा समय बच जाता था। रजिस्टर में प्रत्येक पत्र के साथ यह भी लिखा जाता था कि यह पत्र किस अधिकारी को दिया गया है और उसका समाधान या उत्तर किस तारीख को किया गया है। इससे मुझे पता चलता रहता था कि कितने पत्रों पर कार्यवाही हुई है और कितने अभी बाकी हैं। समय-समय पर मैं इस कार्य की समीक्षा करता था और जो पत्र बहुत दिनों से पड़े होते थे, प्रायः डाटा के इंतजार में, उनकी शाखाओं को पत्र लिखकर आवश्यक सूचना या डाटा मँगवाता था। मेरी इस कार्यप्रणाली का परिणाम यह रहा कि कभी किसी शाखा को ऐसी शिकायत नहीं हुई कि उनके पत्रों पर कार्यवाही नहीं की जाती या उनकी समस्याएँ हल नहीं की जातीं। शाखाओं के ज

आत्मकथा भाग-3 अंश-43

ऑफिस का हाल अब जरा अपने कार्यालय की बात कर ली जाये। जैसा कि मैं बता चुका हूँ, वहाँ तब तक कोई काम नहीं होता था। गिने-चुने अधिकारी थे, जो बेकार बैठे रहते थे। लेकिन लगभग 4 महीने बेकार रहने के बाद हमें काम दिया गया। वास्तव में हमारे बैंक ने एक कम्पनी एच.के. इंडस्ट्रीज का साॅफ्टवेयर खरीदा था और उसका उपयोग स्वयं करना चाहते थे। इस साॅफ्टवेयर में हजारों कमियाँ अथवा छिद्र थे, जिन्हें तकनीकी भाषा में बग (Bug) कहा जाता है। हमारा कार्य था इस साॅफ्टवेयर को सीखकर उसमें से बगों को निकालना और उसको ठीक करके बैंक की हजारों शाखाओं में चलाना। इस साॅफ्टवेयर की ट्रेनिंग देने के लिए उस कम्पनी के दो अधिकारी हमारे यहाँ आये। उन्होंने लगभग 2 माह में सारा साॅफ्टवेयर हमारे अधिकारियों को समझा दिया। फिर हमने उस साॅफ्टवेयर में बगों का पता लगाया। प्रारम्भ में ही हजारों बग खोजे गये और उनको ठीक करने का कार्य प्रारम्भ किया गया। प्रारम्भिक बगों को ठीक करके हमने उस साॅफ्टवेयर को एक-दो शाखाओं में चलाकर देखा। चलाने पर फिर बहुत से बगों का पता चला। फिर उनको ठीक किया गया। यह प्रक्रिया लगातार चलती रही। बग ठीक हुए हैं

आत्मकथा भाग-3 अंश-42

गीतांजलि सामने वाली लाइन में हमारे घर के ठीक सामने कोने वाले घर में एक चौहान परिवार किराये पर रहता था। वे बागपत के रहने वाले हैं। उनके पुत्र श्री अरविन्द चौहान नेटवर्क इंजीनियर हैं और किसी कम्पनी में अच्छे पैकेज पर कार्य करते हैं। अरविन्द जी की पत्नी श्रीमती गीतांजलि भी बहुत योग्य और हँसमुख हैं। कुछ ही महीनों में उनकी हमारी श्रीमतीजी से इतनी घनिष्टता हो गयी थी, जितनी उनकी किसी और परिवार या पड़ोसी से नहीं थी। बाद में जब उन्होंने अपना घर सेक्टर 16 में खरीदा, तो उसके गृहप्रवेश में उन्होंने पूरे मोहल्ले से केवल हमें बुलाया था। उनके नये घर में भी हम बहुत बार गये थे। गीतांजलि का स्वभाव बहुत ही अच्छा है। वह हमारी काफी सहायता भी करती थी। कई बार वह मुझे हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन तक भी लेने या छोड़ने गयी थी। एक बार जब मेरे मँझले साढ़ू श्री सुनील कुमार अग्रवाल सपरिवार चंडीगढ़ घूमने आये थे, तो गीतांजलि ने हमारी कार से उनको पूरा शहर दिखा दिया था। कारण यह है कि हमारी श्रीमतीजी कार चलाने में डरती हैं, जबकि गीतांजलि इसमें सिद्धहस्त हैं। उनके दो पुत्र हैं, जो दोनों अपने माता-पिता की तरह ही योग्

आत्मकथा भाग-3 अंश-41

मोना का प्रवेश मैंने मोना का प्रवेश एक सरकारी विद्यालय में कराने की सोची थी, जो सेक्टर 15 में था। परन्तु श्रीमती जी को वह विद्यालय पसन्द नहीं आया। इसलिए कुछ मित्रों की सलाह पर सेक्टर 15 में ही न्यू इंडिया हायर सेंकडरी गर्ल्स स्कूल में उसका प्रवेश कराने का निश्चय किया। वहाँ की प्रधानाचार्या ने प्रवेश से पहले उसका छोटा सा लिखित टैस्ट लिया और उसमें अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने पर सहर्ष प्रवेश देने को तैयार हो गयीं। हमने उनसे कहा कि हम जून के प्रथम सप्ताह में ही आ पायेंगे, क्योंकि उसकी परीक्षा अप्रेल में समाप्त होंगी और परिणाम मई में आयेगा। वे मान गयीं और हमने फीस जमा कर दी। दीपांक के प्रवेश की औपचारिकता भी तभी पूरी हो गयी और कोचिंग में भी उसको प्रवेश मिल गया। कोचिंग की फीस बहुत अधिक थी, परन्तु आवश्यक होने के कारण मैंने जमा कर दी। दोनों बच्चों के प्रवेश की समस्या हल हो जाने पर हमें बहुत सन्तोष हुआ। अब चिन्ता केवल मकान देखने की थी। हमने एक-दो मकान देखे भी, पर हमें पसन्द नहीं आये। इसलिए यह विचार बना कि अभी दीपांक मेरे साथ ही रहेगा और मोना तथा श्रीमती जी कानपुर लौट जायेंगी। गौड़ स

आत्मकथा भाग-3 अंश-40

कुलवन्त से मुलाकात अपने परम मित्र श्री कुलवन्त सिंह गुरु के बारे में मैं अपनी आत्मकथा के पहले भाग में विस्तार से लिख चुका हूँ। एच.ए.एल. में नौकरी लग जाने के बाद कुलवन्त से मेरा सम्पर्क कम हो गया था और बैंक में आ जाने के बाद तो एकदम ही टूट गया। मेरे पास उसके बारे में अन्तिम समाचार यह था कि वह जनरल इंश्यौरेंस कम्पनी में अमृतसर में काम कर रहा था। जब मैं पंचकूला आ गया, तो मैंने सोचा कि हो सकता है अब वह ऊँची पोस्ट पर पहुँच गया हो और चंडीगढ़ में हो। उस समय वहाँ एक टेलीफोन डायरेक्टरी रखी थी। चंडीगढ़ और पंचकूला की टेलीफोन डायरेक्टरी एक ही होती है। मैंने उसमें तलाश की तो कुलवन्त सिंह गुरु के नाम की एक प्रविष्टि मिली। मुझे पता नहीं था कि यह उसी की है। फिर भी मैंने कोशिश करने का निश्चय किया। मैंने श्री विजय सिंह से उसके नम्बर पर फोन कराया और पुछवाया कि क्या कुलवन्त सिंह आगरा में पढ़े हैं। फोन उसकी पत्नी ने उठाया था, जब यह सवाल पूछा गया, तो वे बोलीं- ‘हाँ, पर आप क्यों पूछ रहे हैं?’ तब श्री विजय सिंह ने बताया कि ‘विजय कुमार सिंघल’ पूछ रहे हैं। तब उन्होेंने कहा कि मैं उनको जानती हूँ। यह जानक

आत्मकथा भाग-3 अंश-39

पंचकूला में पंचकूला में मेरे प्रयास करने पर कई संदर्भ मिल गये। एक तो श्री गुलशन कपूर, जो मेरे साथ कानपुर मंडलीय कार्यालय में काफी समय रहे थे, चंडीगढ़ स्थानांतरित हो गये थे और उनका अपना मकान पंचकूला में है। उनसे बात करने पर उन्होंने मुझे पहले अपने ही पास आने की सलाह दी और कहा कि सारी व्यवस्था हो जायेगी। दूसरे श्री इंद्रम नंदराजोग भी उस समय चंडीगढ़ मंडलीय कार्यालय में आ गये थे। वे भी कानपुर में मेरे साथ मंडलीय कार्यालय में रहे थे और उनका भी फ्लैट पंचकूला में है। तीसरे श्री एस.एल. लूथरा उस समय चंडीगढ़ मंडल की किसी शाखा में थे और उनका अपना मकान खरड़ नामक कस्बे में है, जो चंडीगढ़ से केवल आधा घंटे के रास्ते पर है। चौथे श्री गया प्रसाद गौड़ हमारे सहायक महाप्रबंधक थे ही। इन सबसे अलावा एक संदर्भ मेरे भतीजे डा. मुकेश चन्द ने दिया था, जो एक सरदार परिवार का था। उनकी पुत्री ने मुकेश के किसी चचेरे साले से प्रेम विवाह किया था। मुकेश ने उनसे बात की, तो उन्होंने मुझे पहले अपने पास ही भेजने को कहा और वायदा किया कि मुझे कोई कष्ट नहीं होने दिया जाएगा, परन्तु मैं उनकी इस उदारता का कोई लाभ

आत्मकथा भाग-3 अंश-38

मोना की पढ़ाई हमारी पुत्री आस्था ने कौशलपुरी के सनातन धर्म सरस्वती शिशु मंदिर से कक्षा 5 पास कर लिया था। उससे आगे ही पढ़ाई वहाँ अच्छी नहीं होती थी, इसलिए हमने बी.एन.एस.डी. शिक्षा निकेतन में ही उसका कक्षा 6 में प्रवेश कराना तय किया, जहाँ उसका भाई दीपांक पहले से पढ़ रहा था। उसका प्रवेश भी प्रवेश परीक्षा के आधार पर आसानी से हो गया। वहाँ पढ़ाई अच्छी होती थी, लेकिन वह केवल एक साल ही उसमें पढ़ सकी, क्योंकि इससे पहले ही मेरा स्थानांतरण कानपुर से पंचकूला हो गया था। पुनः मकान बदलना बुढ़िया के मकान को छोड़ने का मन बना लेने पर मैंने मकान देखना प्रारम्भ किया। एक स्वयंसेवक ने हमें एक मकान बताया, जो नेहरू नगर में कमला नेहरू पार्क के बिल्कुल सामने मुख्य सड़क पर था। उसमें आगे के भाग में सड़क की ओर नीचे दुकानें थीं और ऊपर हमारा फ्लैट था। पीछे के भाग में मकान मालिक श्री उमा नाथ अवस्थी रहते थे। उनको सब सम्मान से ‘पापाजी’ कहते थे। पापाजी रिटायर्ड शिक्षक थे और पहले रसायन विज्ञान (केमिस्ट्री) पढ़ाया करते थे। उनका और उनकी पत्नी ‘मम्मीजी’ का स्वभाव इतना अच्छा था कि शब्दों में नहीं बताया जा सकता। नवम्बर 20

आत्मकथा भाग-3 अंश-37

टाइपिस्ट की सेवाएँ लेना उस समय मुझे हाईस्कूल और इंटरमीडियेट के लिए पुस्तकें लिखने का आदेश मिला हुआ था। मैंने टाइपिंग की सुविधा के लिए एक टाइपिस्ट को पार्टटाइम काम के लिए रखा। वे थे श्री गणेश नारायण तिवारी। वे बहुत अच्छे टाइपिस्ट थे और हिन्दी-अंग्रेजी दोनों में बिना गलती के तेजी से टाइप कर लेते थे। वे हमारे एक स्वयंसेवक श्री ब्रज किशोर पाठक जी का कार्य भी पार्ट टाइम करते थे, जो एक अच्छे आर्कीटैक्ट हैं। उन्होंने ही श्री तिवारी से मेरा परिचय कराया था। श्री तिवारी जी शाम को 6 बजे आते थे और 2 घंटे कार्य करने के बाद जाते थे। मैं ऑफिस से सायंकाल लगभग 5.45 पर लौटता था। केवल 15 मिनट विश्राम करके मुझे भी उनके साथ बैठना होता था। मैं बोलता जाता था और वे टाइप करते जाते थे। इससे कार्य तो काफी हो जाता था, लेकिन थकान भी बहुत हो जाती थी। कभी मेरे पास समय नहीं होता था, तो मैं अपनी आत्मकथा का पहला भाग जो उस समय कागजों पर ही था, उनको टाइप करने को दे दिया करता था। श्री तिवारी जी ने दो महीने मेरा कार्य किया, फिर यह कहकर मना कर दिया कि उनके पास समय नहीं है। मैंने एक घंटा प्रतिदिन आने के लिए कहा, त

आत्मकथा भाग-3 अंश-36

पैर में चोट मम्मी की तेरहवीं के बाद मैं कानपुर लौटकर आया ही था कि कुछ दिन बाद शाखा में कबड्डी खेलते हुए विपक्षी टीम के एक खिलाड़ी ने (जिनका नाम यहाँ लिखना मैं उचित नहीं समझता) मेरे पैरों को इतनी बुरी तरह जकड़ा कि दायें पैर की नसें दब गयीं और बहुत चोट आयी। हालांकि फ्रेक्चर नहीं था, लेकिन मुझसे खड़ा भी नहीं हुआ जाता था, चलना और सीढ़ियाँ चढ़ना तो असम्भव ही था। किसी तरह शाखा से घर पहुँचा। श्रीमती जी चाहती थीं कि मैं डाक्टर के पास जाऊँ, परन्तु मैंने दृढ़ता से इनकार कर दिया। मैं जानता था कि वे मेरे पैर पर प्लास्टर चढ़ाकर एक महीने के लिए मुझे बिस्तर पर पटक देंगे और मैं हमेशा के लिए लँगड़ा हो जाऊँगा। वहीं घर से थोड़ी दूर नेहरू नगर के कमला पार्क में एक पहलवान बैठता था, जो मालिश वगैरह करके मोच ठीक करता था। मैं एक मित्र स्वयंसेवक के कंधे पर चढ़कर उसके पास गया। उसने जाँच करके बताया कि फ्रैक्चर नहीं है और दब जाने के कारण नसों में सूजन आ गयी हैं, जो धीरे-धीरे टहलने और कुछ दिन आराम करने से ठीक हो जाएगी। यह जानकर कि केवल नसों में सूजन है मुझे बहुत सन्तोष मिला। मैं जानता था कि इसका इलाज गर्म-ठंडी

आत्मकथा भाग-3 अंश-35

नये मकान में हमारा नया मकान भी अशोक नगर में ही सड़क के बीच वाले मंदिर के पास था। उसके मकान मालिक थे श्री लालता प्रसाद तिवारी। हम दिसम्बर 2003 की 15 तारीख को उसमें गये थे। पिछले मकान से हमें 15 दिन का किराया वापस मिला था, जो हमने नये मकान मालिक को दे दिया। नया मकान यों तो बहुत अच्छा था। लेकिन उसमें एक गड़बड़ थी। वहाँ मकानमालिकन बुढ़िया बहुत बक-बक करती थी। वह हर किसी के ऊपर दिनभर चिल्लाया करती थी और किरायेदारों को भी नहीं बख्शती थी। हमने गलती यह कर दी कि उस मकान में आने से पहले दूसरे किरायेदारों से बात नहीं की, नहीं तो हमें पता चल जाता कि इसमें बुढ़िया बहुत चिल्लाती है और हम उसमें आते ही नहीं। वह जरा-जरा सी बात पर चिल्लाती थी, जैसे- यह दरवाजा मत खोलो, सीढ़ियों की लाइट मत जलाओ, बालकनी में कूलर मत रखो, कील मत ठोको, पानी ज्यादा खर्च मत करो आदि। बालकनी में कूलर न रखने देने पर मुझे सबसे अधिक गुस्सा आता था। मैं चाहता था कि उसको एक बार हड़का दिया जाये, तो चुप हो जाएगी, परन्तु श्रीमती जी ने मुझे नहीं बोलने दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि वह बुढ़िया तो चुप नहीं हुई, लेकिन श्रीमती जी को टेंशन ह