आत्मकथा भाग-4 अंश-61

श्रीमती साधना सिंह से मिलन

हमारी पत्रिका ‘जय विजय’ की एक रचनाकार श्रीमती साधना सिंह गोरखपुर में ही रहती हैं। संयोग से उनका निवास आरोग्य मंदिर के बहुत निकट है। जब उनको पता चला कि मैं आरोग्य मंदिर में पढ़ रहा हूँ, तो एक दिन अपनी एक भतीजी के साथ मुझसे मिलने आ गयीं। उनसे मिलकर मुझे अच्छा लगा। वे देखने में जितनी अच्छी लगती हैं, उतना ही अच्छा उनका स्वभाव है। उनके यहाँ मेडीकल स्टोर चलता है।
मैं गोरखपुर में मेडीकल छुट्टी पर आया था, क्योंकि मेरी कई माह की छुट्टियाँ पड़ी हुई थीं, जिनका उपयोग मैंने नहीं किया था। उनमें से दो माह की छुट्टियों का उपयोग मैंने यहाँ कर लिया। ऐसी छुट्टी लेने के लिए एक प्रमाणपत्र आवश्यक होता है। उसकी व्यवस्था हालांकि आरोग्य मंदिर से हो सकती थी, परन्तु मैंने सरल रास्ता ही अपनाया और श्रीमती साधना सिंह ने उसकी व्यवस्था कर दी। 27 फरवरी को ही उन्होंने मुझे मेडीकल प्रमाणपत्र लाकर दे दिया। उस दिन वे अपने पतिदेव के साथ मिलने आयी थीं।
वैसे साधना जी चाहती थीं कि मैं एक बार उनके निवास पर भोजन के लिए पधारूँ, परन्तु कई कारणों से उसका अवसर नहीं मिल सका। वे भी बीच में कहीं बाहर गयी थीं। इसलिए इसका कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। उनसे और उनके पतिदेव से मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा था।
शिक्षा सत्र का समापन और विदाई
हमारी अन्तिम परीक्षाएँ 24 फरवरी से 27 फरवरी के बीच सम्पन्न हो गयी थीं और अन्तिम मौखिक परीक्षा भी हुई थी। जो लोग प्राकृतिक चिकित्सा के साथ योग में भी उपाधि लेना चाहते थे, उनकी परीक्षा पहले ही सम्पन्न हो गयी थी और मौखिक परीक्षा भी डाॅ पीयूष मणि पाण्डेय द्वारा ली जा चुकी थी। मुझे पता चला था कि इस लिखित परीक्षा में मेरे अंक सर्वाधिक थे, परन्तु उनकी घोषणा नहीं की गयी थी।
28 फरवरी को प्रातःकाल ही हमारी विदाई पार्टी हुई। इसमें डाॅ मोदी ने सभी को कुछ न कुछ गिफ्ट दिया था। हमारा परिणाम एक माह बाद घोषित होना था। मई माह में हमारी डिग्री अर्थात् प्रमाणपत्र बाद में हमें डाक से प्राप्त हुए। जैसी कि मुझे आशा थी, मैं इसमें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था, यद्यपि मैं कई लोगों से पीछे रह गया था।
28 फरवरी के लिए ही मैंने रात्रिकालीन रेलगाड़ी में अपना आरक्षण करा लिया था। लेकिन हमारे सहपाठी श्री दीपेन्द्रम, जो लखनऊ के हैं और अपनी कार में आये थे, ने मुझसे कहा कि हमारे साथ कार में लखनऊ चलना। मैंने स्वीकार कर लिया और अपना आरक्षण रद्द करा दिया। उसी दिन दोपहर 1 बजे हम दोनों अन्य साथियों से विदा लेकर निकल पड़े। हमने रास्ते में एक ढाबे में दोपहर का भोजन किया था। इस यात्रा में रास्ते में कई टाॅल बूथ पड़ते हैं। उनमें टैक्स का भुगतान मैंने किया था। पेट्रोल का खर्च श्री दीपेन्द्रम ने उठाया था।
गोरखपुर से लखनऊ का हाईवे बहुत अच्छा बना हुआ है। इसलिए कोई थकान नहीं हुई। ठीक शाम को लगभग 6 बजे हम लखनऊ पहुँच गये और श्री दीपेन्द्रम ने मुझे मेरे फ्लैट के नीचे उतार दिया।
जिन दिनों मैं गोरखपुर में शिक्षा प्राप्त कर रहा था, उन दिनों श्रीमतीजी और पुत्री आस्था दोनों दुबई गयी हुई थीं। मेरे गोरखपुर से लौटने के कुछ दिन पहले ही वे वापस आ गयी थीं, क्योंकि वीजा केवल एक माह का लिया था। 28 फरवरी को मेरे लखनऊ पहुँचने से दो दिन पहले वे भी लखनऊ पहुँच गयी थीं।
गोरखपुर से लौटने के बाद मैं फिर अपनी नौकरी में व्यस्त हो गया था। अवकाश प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को अपनी पेंशन गणना और अन्य हिसाब-किताब के लिए कुछ जानकारी देनी पड़ती है। हालांकि यह जानकारी बैंक के पास भी होती है, परन्तु उसे एकत्र करने का कष्ट कोई नहीं उठाना चाहता, इसलिए कर्मचारी से ही कई पन्नों का एक फार्म भरवाया जाता है और फोटू भी माँगते हैं। जब मैं गोरखपुर में था, तो मेरे विभाग के अधिकारियों ने वह फार्म मुझे भेज दिया था और मैंने उसे भरकर फोटू के साथ वापस भेजकर यह औपचारिकता पूरी कर दी थी।
-- डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

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