आत्मकथा भाग-4 अंश-62 (अन्तिम)

अवकाश प्राप्ति

अपना अवकाश प्राप्ति का समय आने तक मैंने अपने लखनऊ के मित्रों से मिलना-जुलना प्रारम्भ कर दिया था। संघ के कार्यकर्ताओं को भी सूचना दे दी थी कि अब मैं स्थायी रूप से लखनऊ छोड़ रहा हूँ और अब शायद ही यहाँ आने का अवसर मिलेगा। मेरे जाने के कारण वे सभी दुःखी थे, विशेष रूप से शाखा वाले स्वयंसेवक, परन्तु इसका कोई समाधान भी नहीं था, क्योंकि मुझे आगरा में ही रहना था।
जब मेरे अवकाश ग्रहण का समय निकट आया तो हमारे पुत्र दीपांक और पुत्रवधू श्वेता दोनों दो दिन पहले ही लखनऊ आ गये। 31 मार्च 2019 को मेरा अवकाश ग्रहण होना था, परन्तु उस दिन रविवार होने के कारण 30 मार्च ही मेरा अन्तिम कार्यदिवस रहा। उससे एक दिन पहले अर्थात् 29 मार्च को मैंने अपने विभागीय साथियों को विदाई पार्टी दी। यह पार्टी आर्यन रेस्टोरेंट में हुई थी। उसमें दीपांक और श्वेता भी सम्मिलित हुए। उनको विभागीय साथियों ने विवाह की भेंट दी थी। हमारे विभाग के कई अधिकारी पंचकूला में दीपांक से पढ़ चुके थे, जिसने उनको पीएचपी साॅफ्टवेयर में काम करना सिखाया था। वे सभी दीपांक से पुनः मिलकर बहुत प्रसन्न हुए।
मुझे अपने मंडलीय कार्यालय से कोई औपचारिक विदाई नहीं दी गयी। मुझे उसकी आशा भी नहीं थी, क्योंकि वहाँ के तत्कालीन वरिष्ठ अधिकारियों से मेरी कोई घनिष्ठता नहीं थी। उस समय उपमहा प्रबंधक डाॅ राहुल श्रीवास्तव हमारे मंडलीय प्रमुख थे। उनसे मेरा मामूली सा परिचय था। फिर भी सौजन्यतावश मैं 30 मार्च को कार्यालय समय समाप्त होने के बाद उनसे मिलने गया और उनको सूचित कर दिया कि मैं आज अवकाशप्राप्त कर चुका हूँ और आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। उन्होंने भी मुझे शुभकामनाएँ दीं।
अपने विभागीय सहयोगियों से विदा लेकर मैं घर चला गया। अब हमें अपना सामान आगरा ले जाने की व्यवस्था करनी थी।
लोकसभा चुनावों में मतदान
मई 2019 में लोकसभा चुनाव होने वाले थे और हमारे वोट अभी भी हमारे पुराने फ्लैट के पते पर लखनऊ में ही थे। हम उनको बेकार नहीं करना चाहते थे। इसलिए हमने यह निश्चय किया कि हम वोट डालने से एक दिन पहले लखनऊ आयेंगे और वोट डालने के बाद अपना सामान आगरा भेजकर फ्लैट खाली कर देंगे। इसलिए हम अप्रेल के पहले ही सप्ताह में आगरा चले गये। वहाँ हमने अपने मकान की छत पर टीन की मोटी-मोटी चादरों से एक स्टोर रूम बनवा लिया, जिसमें हम अपना फालतू सामान रख सकते थे।
यह कराने के बाद निर्धारित दिन हम फिर लखनऊ आये और लोकसभा चुनावों में मतदान करके मोदी जी को शक्ति प्रदान की। हमारे पास कुछ फर्नीचर मेरे मित्र कैप्टेन राजीव सिंह का था, वह हमने उनके फ्लैट में पहुँचा दिया, जिसके लिए ड्राइवर कमलेश ने एक मैटाडोर का प्रबंध कर दिया था। दो दिन बाद ही हमने अपना सामान पैक करके आगरा भेज दिया। फिर स्वयं भी आगरा पहुँच गये। तब से हम अपने मकान में आगरा में ही रह रहे हैं।
यह बताना आवश्यक है कि जिन दो महीनों में मैं गोरखपुर में था, उन दिनों हमारी पत्रिका ‘जय विजय’ का काम लगभग बन्द था। उसकी वेबसाइट तो चल रही थी, उस पर रचनायें भी लोग लगा रहे थे और मैं भी लगाता था, लेकिन पत्रिका का मासिक अंक तैयार करने का काम रुका हुआ था, क्योंकि उस समय तक सारा काम डेस्कटाॅप पर होता था। जनवरी का अंक तो मैं गोरखपुर जाने से पहले ही बनाकर भेज गया था, लेकिन फरवरी और मार्च के अंक रह गये थे। मैंने वहाँ से लौटने के बाद जमकर मेहनत करके 15-20 दिनों में एक-एक अंक निकाल दिया था। अर्थात् फरवरी से मई 2019 तक के चार अंक मैंने मात्र तीन महीनों में निकाल दिये थे। फिर जून 2019 का अंक भी लगभग समय पर निकाल दिया। इस प्रकार पत्रिका का कोई अंक छूटा नहीं। इसके साथ ही मैंने पत्रिका बनाने का कार्य डेस्कटाॅप से निकालकर लैपटाॅप पर डाल लिया था, ताकि इधर-उधर जाने से पत्रिका का कार्य रुके नहीं।
उपसंहार
हमने अपने सभी बैंक खाते आगरा की न्यू आगरा (कमला नगर) शाखा पर स्थानांतरित करा लिये थे। वहीं से मुझे पेंशन मिल रही है। मेरे अवकाशप्राप्ति तक की कथा यहाँ समाप्त हुई। इसके बाद की कहानी साधारण ही है। कोई बहुत घटनापूर्ण नहीं है। इसलिए यहीं पर मैं अपनी कलम (या लैपटाॅप) को विराम देता हूँ। इति शुभम्।
-- डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

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