आत्मकथा भाग-4 अंश-59

आरोग्य मंदिर के सहपाठी

आरोग्य मंदिर में कई सहपाठियों से मेरी बहुत घनिष्ठता हो गयी थी। उनमें से कुछ का परिचय यहाँ देना चाहूँगा।
मेरे एक रूममेट श्री प्रदीप कुमार ओली उत्तराखंड में सरकारी शिक्षक हैं। उनकी पत्नी भी सरकारी शिक्षिका हैं, उनके दो बच्चे भी हैं। लेकिन उनकी पत्नी उनके साथ प्रसन्न नहीं थीं, वे अपने दोनों बच्चों को प्रदीप जी के साथ छोड़कर कहीं अकेली रहती हैं। उनमें तलाक का मामला चल रहा है। वैसे प्रदीप जी बहुत ही शालीन और योग्य हैं, वे मेरी बहुत सहायता किया करते थे। हालांकि अधिकांश समय पत्नी के कारण सुस्त रहते थे। दूसरे रूममेट श्री नितेश कुमार पटना में पतंजलि उत्पादों की दुकान चलाते हैं और प्राकृतिक चिकित्सा भी करते हैं।
डाॅ मोहन जोशी हलद्वानी में अपना प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र चला रहे हैं। वे योग के बहुत अच्छे अभ्यासी और ज्ञानी हैं। डाॅ राम गोपाल पहले मर्म चिकित्सा करते थे, जिसमें मुख्य जोर एक्यूप्रेशर पर दिया जाता है। अब वे बिहार में अपना प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्र बनवा रहे हैं। इसी तरह डाॅ रागिनी और डाॅ प्रज्ञांशु पाण्डेय भी अपना-अपना चिकित्सा केन्द्र चला रहे हैं। डाॅ मनीष कुमार पाठक नेपाली मूल के हैं और आजकल सहायक चिकित्सक के रूप में आरोग्य मंदिर में ही अपनी सेवायें दे रहे हैं।
हमारे बैच में एक उम्रदराज सरदार जी भी आये थे- श्री महेन्द्र सिंह। वे बहुत स्नेहशील सज्जन हैं। ऐसे ही सेना से रिटायर्ड डाॅ सन्तोष कुम्भार भी आये थे, जो एम.एस. हैं। वे मुझसे इतना स्नेह करते हैं कि हर बार मुझसे गले मिलकर ही अभिवादन करते थे। वे आजकल अम्बाला के पास एक आश्रम में आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक और प्राकृतिक चिकित्सा सेवा दे रहे हैं।
इनके अतिरिक्त बहुत से ऐसे सहपाठी भी हैं, जिनका कोई क्लीनिक तो नहीं है, लेकिन अपने घर से ही प्राकृतिक चिकित्सा परामर्श दिया करते हैं, जैसे- डाॅ प्रीति सिंह, डाॅ आभा कुमार, अम्बरीष पनगोत्रा, पिंकी दहिया चाहर आदि। शेष के बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है। हम सभी व्हाट्सएप समूहों में जुड़े हुए हैं और एक दूसरे की सहायता करते रहते हैं। मुझे क्योंकि प्राकृतिक चिकित्सा का सबसे अधिक अनुभव है, इसलिए कई लोग बीच-बीच में मेरी सहायता लेते रहते हैं और मैं भी उनको परामर्श देता रहता हूँ।
हालांकि आरोग्य मंदिर में रहते हुए मैं अधिक सक्रिय नहीं था। अधिकांश गतिविधियों में मैं एक दर्शक की भाँति ही रहता था। किसी शिक्षक से भी मेरी कोई घनिष्टता नहीं थी। वास्तव में मैं लो-प्रोफाइल रहना अधिक पसन्द करता हूँ। अधिकांश सहपाठियों को मेरे बारे में बस इतना पता था कि मैं बैंक में नौकरी करता हूँ और जल्दी ही रिटायर होने वाला हूँ। वहाँ के अधिकांश अध्यापकों और सहपाठियों को तो यह भी पता नहीं था कि मेरे कान खराब हैं। मैंने अपनी स्वास्थ्य पुस्तिका भी किसी को नहीं दी थी। बहुत बाद में केवल अपने रूममेट श्री प्रदीप कुमार ओली को इसकी एक प्रति दी थी।
लेकिन व्हाट्सएप समूहों से जुड़ने के बाद जब मैंने अपने लेख उन समूहों में लगाये और अपने कई सफल चिकित्सा अनुभव भी प्रस्तुत किये, तब उनको इस बात का ज्ञान हुआ कि मुझे प्राकृतिक चिकित्सा की कितनी गहन जानकारी है।
रविवार के समय का उपयोग हम या तो पढ़ाई और आराम में करते थे, या कहीं घूमने जाते थे। एक बार हम तीनों रूममेट गोरखनाथ जी का मठ देखने गये थे। बहुत पहले जब मैं वहाँ अपनी श्रीमती जी के साथ गया था, तब से तो वह परिसर बहुत बदल गया था। भीतरी ढाँचा तो लगभग पहले जैसा ही है, लेकिन बाहर बहुत विकास हो गया है। वहाँ अच्छा बाजार और एक तालाब भी है, जिसमें लाइट एंड साउंड शो दिखाया जाता है। यह एक पिकनिक स्पाॅट जैसा ही बन गया है।
एक बार हम तीनों कुशीनगर भी गये थे, जो महात्मा बुद्ध की निर्वाणस्थली है। यह स्थान उत्तर प्रदेश में ही है और गोरखपुर से वहाँ का लगभग 2 घंटे का रास्ता है। हम बस में बैठकर वहाँ पहुँच गये और वहाँ स्थित बौद्ध धर्मस्थलों को देखा। वहाँ भगवान बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूर्ति है, जो शयन की अवस्था में है। वास्तव में यह मूर्ति भगवान बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के समय को व्यक्त करती है। इस पर भी बौद्ध लोगों द्वारा चादर आदि चढ़ाई जाती है और अनेक प्रकार के कर्मकांड किये जाते हैं।
एक दिन हम तीनों गोरखपुर के प्रसिद्ध गीता प्रेस में भी गये थे, जहाँ भगवद गीता को एक बड़े हाॅल में दीवारों पर अंकित किया गया है और अनेक दुर्लभ चित्रों के माध्यम से भी दिखाया गया है। वहीं गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की सबसे बड़ी दुकान भी है। हमने वहाँ से कुछ पुस्तकें खरीदी थीं। आरोग्य मंदिर से लगभग 2 किलोमीटर दूर गीता प्रेस के संस्थापक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी का स्मारक है। हम एक दिन रविवार को वहाँ भी पहुँच गये थे।
फिर एक बार अधिकांश सहपाठी एक बस में बैठकर नेपाल में कपिलवस्तु की यात्रा पर गये थे। नेपाल की अधिकांश सड़कें हालांकि बहुत खराब हालत में थीं, लेकिन इस तीर्थस्थान का बहुत अच्छा विकास किया गया है। वास्तव में इनके विकास में कई बौद्ध देशों जैसे श्रीलंका, मियाँमार, थाईलैंड, इंडोनेशिया आदि का अधिक योगदान है। वैसे इन स्थानों में हमने देखा था कि बौद्धों में भी अधिकांश वैसे ही कर्मकांड प्रचलित हैं, जैसे हमारे सनातन धर्म में हैं। अंधविश्वास भी लगभग वैसा ही है। फिर भी हमें नेपाल घूमकर अच्छा लगा। हमें वहाँ का वातावरण बहुत शुद्ध प्रतीत हुआ।
-- डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

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