आत्मकथा भाग-4 अंश-57

 प्राकृतिक चिकित्सा की औपचारिक शिक्षा

प्राकृतिक चिकित्सा तथा योग से मेरा परिचय बहुत पुराना है। जब मैं एम.स्टेट. में पढ़ता था, तभी से मैं इसकी पुस्तकें और लेख पढ़ा करता था और उसके सिद्धान्तों को यथासंभव स्वयं पर लागू किया करता था। मेरा यह दृढ़ मत था कि यदि कोई चिकित्सा पद्धति सबसे अधिक वैज्ञानिक और प्रभावशाली है, तो वह यही है। इसकी विधियाँ भी इतनी सरल हैं कि किसी ताम-झाम के बिना अपने घर पर भी कोई भी व्यक्ति केवल घरेलू वस्तुओं से अपनी चिकित्सा स्वयं कर सकता है। उसके साथ थोड़ा सा आयुर्वेद का पुट लगा दिया जाये, तो सोने में सुहागा। जब मैं दिल्ली में एम.फिल. में पढ़ता था, तो होस्टल के अपने कमरे में प्रायः नियमित योगासन किया करता था और कभी-कभी टहलने भी जाता था। इससे कुल मिलाकर मैं वहाँ पूर्ण स्वस्थ रहता था, हालांकि मेरा वजन कम था।
तभी मैंने प्राकृतिक चिकित्सा और योग पर आरोग्य मंदिर, गोरखपुर से कुछ पुस्तकें मँगाकर पढ़ी थीं और उनसे मेरा ज्ञान और विश्वास सुदृढ़ हुआ। स्वास्थ्य सम्बंधी छोटी-मोटी शिकायतों को मैं इसकी विधियाँ स्वयं पर आजमाकर ही ठीक कर लेता था और कोई दवा नहीं खाता था। मैं प्राकृतिक चिकित्सा में कोई उपाधि प्राप्त करना चाहता था, इसके लिए मैंने आरोग्य मंदिर में अपना पंजीकरण करा लिया था। वहाँ कम से कम एक साल तक कोई भी व्यक्ति अपने घर पर पढ़कर और फिर दो महीने तक आरोग्य मंदिर में ही व्यावहारिक ज्ञान लेकर उनकी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर एन.डी. (डाॅक्टर ऑफ नेचुरोपैथी) की उपाधि प्राप्त कर सकता है। हालांकि इस उपाधि को सरकारी मान्यता नहीं है, लेकिन यह प्राकृतिक चिकित्सकों में बहुत सम्मानित है।
मैं कई वर्षों से व्यावहारिक ज्ञान के लिए आरोग्य मंदिर जाना चाहता था, लेकिन हर बार कोई न कोई बाधा आ जाती थी। मेरा संकल्प बैंक सेवा से अवकाश प्राप्त करने के बाद अपना पूरा समय प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा समाज की सेवा करने का था। बिना डिग्री के ही मैं मित्रों और सम्बंधियों को चिकित्सा सलाह दिया करता था। जो मेरी सलाह पर चलते थे, वे स्वस्थ हो जाते थे और जो नहीं चलते थे, वे कष्ट उठाते रहते थे। लेकिन पूर्ण विश्वास के साथ चिकित्सा सेवाकार्य करने के लिए मेरे पास कोई न कोई उपाधि होना आवश्यक था।
जब 2018 भी लगभग निकल गया और मेरा अवकाशप्राप्ति का समय निकट आ गया, तो मैं समझ गया कि यदि इस बार भी मैं व्यावहारिक ज्ञान हेतु आरोग्य मंदिर नहीं जा सका, तो मैं एक साल बेकार ही बैठा रहूँगा। इसलिए मैंने जनवरी-फरवरी 2019 में इसके लिए आरोग्य मंदिर जाने का निश्चय कर लिया। श्रीमतीजी ने सदा की तरह मुझे इसके लिए हतोत्साहित किया, पर मैं नहीं माना। बेटे का विवाह हो ही चुका था, बेटी भी पीएचडी में प्रवेश के लिए तैयारी कर रही थी, इसलिए मुझे उनकी चिन्ता नहीं थी। मैंने आरोग्य मंदिर में निर्धारित राशि भेजकर अपने लिए स्थान सुरक्षित करा लिया। मैंने श्रीमती जी से कहा कि तुम भी मेरे साथ गोरखपुर चलो, वहीं रह लेना और अपनी डायबिटीज का उपचार भी करा लेना। लेकिन उनको प्राकृतिक चिकित्सा में रत्तीभर भी विश्वास कभी नहीं रहा, इसलिए वे नहीं मानी।
अन्ततः हुआ यह कि 31 दिसम्बर 2018 को लखनऊ से हम दोनों लगभग एक ही समय वोल्वो बसों में बैठे- वे आगरा वाली बस में और मैं गोरखपुर वाली बस में। कुछ ही घंटों में मैं गोरखपुर पहुँच गया और कुछ पूछताछ के बाद आरोग्य मंदिर भी। वहाँ जाकर मैंने अपनी शेष फीस जमा की और एक कमरे में अपने निवास का प्रबंध कर लिया। उस कमरे में मेरे अलावा दो विद्यार्थी और थे- एक, उत्तराखंड के श्री प्रदीप कुमार ओली और दूसरे पटना, बिहार के श्री नितेश कुमार। इनका साथ अच्छा रहा। आस-पास के कमरों में और भी बहुत से विद्यार्थी रह रहे थे। उनसे परिचय बाद में हुआ। अधिकांश पाठ्य पुस्तकें मेरे पास थीं, शेष वहीं से खरीद लीं।
हमारे बैच में आरोग्य मंदिर की आशा से अधिक विद्यार्थी आ गये थे- कुल 84, जिनमें लगभग 35 महिलायें थीं। विद्यार्थी सभी उम्रों के थे। 60 साल के ऊपर के भी तीन-चार लोग थे। लेकिन अधिकांश विद्यार्थी 20 से 30 वर्ष तक आयुवर्ग के थे।
आरोग्य मंदिर में मेरा प्रवास बहुत अच्छा रहा। उन दिनों वहाँ भी बहुत ठंड पड़ रही थी। लेकिन हम उसे झेलते हुए कक्षाओं में जा रहे थे और दिन में दो बार योग-व्यायाम के अभ्यास हेतु भी जाते थे। दोपहर तक व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता था और दोपहर बाद कक्षायें लगती थीं। इसका पूरा हाल मैंने अलग से लिख रखा है। उसका सारांश मैं आगे प्रस्तुत करूँगा।
-- डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
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